रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं से बंगाली सिनेमा भी काफ़ी प्रभावित रहा है। उनकी कई लोकप्रिय कहानियों को जाने-माने फ़िल्मकारों ने सिनेमाई पर्दे पर उतारा है। रवींद्रनाथ टैगोर के अपने जीवन की घटनाओं पर भी कुछ फ़िल्में बंगाली फ़िल्म इंडस्ट्री में बनायी गयी हैं।
ऐसी ही एक फ़िल्म है कादम्बरी। यह टैगोर की भाभी कादम्बरी देवी की बायोपिक फ़िल्म है, जिसमें टैगोर के साथ उनके संबंधों को बेहद ख़ूबसूरती के साथ निर्देशक सुमन घोष ने सिनेमा के ज़रिए दर्शकों के सामने रखा था।
अनुष्का शर्मा की नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म 'बुलबुल' की कहानी के दोनों मुख्य पात्रों की प्रेरणा 'कादम्बरी' से ही आयी लगती है, जिसे आगे बढ़ाते हुए एक सुपरनेचुरल थ्रिलर का रूप दे दिया गया है और इसी के साथ 'कादम्बरी' से इसकी समानता भी ख़त्म हो जाती है।
इन दोनों फ़िल्मों को जोड़ने वाली कड़ी परमब्रत चटर्जी हैं, जो 'कादम्बरी' में टैगोर के किरदार में थे, जबकि कोंकणा सेन शर्मा कादम्बरी बनी थीं। 'बुलबुल' में परमब्रत एक महत्वपूर्ण किरदार में नज़र आते हैं। बुलबुल एक मजबूत संदेश देने वाली फ़िल्म है, जिसमें थ्रिल या हॉरर की डोज़ बिल्कुल नहीं है, जैसा कि इसके टीज़र और ट्रेलर को देखकर अपेक्षा की गयी थी।
'बुलबुल' की कहानी की पृष्ठभूमि में 19वीं सदी के अंत का बंगाली समाज और उस दौर की वो सब बुराइयां हैं, जिन्हें ख़त्म करने के लिए ईश्वर चंद्र विद्या सागर जैसे कई महान समाज सुधारकों ने सालों आंदोलन चलाए थे। मसलन, बाल विवाह, पुरुषवादी सोच और इसकी वजह से महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और उन अत्याचारों को अपनी क़िस्मत मानने लेने की स्त्री की मजबूरी। 'बुलबुल' इन सब सामाजिक बुराइयों से जूझती एक लड़की के अंदर फूटे गुस्से की परिणीति है।
'बुलबुल' का बाल विवाह एक ज़मींदार घराने में अपने से कई साल बड़े इंद्रनील से होता है। इंद्रनील का छोटा भाई सत्या बुलबुल का लगभग हमउम्र है। उसी के साथ खेलते हुए वो बड़ी होती है। बचपन की चंचलता और लगाव जवानी में आकर्षण में बदल जाता है। बुलबुल मन ही मन सत्या को चाहने लगती है।
इंद्रनील को अपने जुड़वां मंदबुद्धि भाई महेंद्र की पत्नी बिनोदिनी के ज़रिए इसका आभास होता है। ज़मींदारी ख़ून में उबाल मारती है और इंद्रनील सत्या को लंदन भेज देता है। सत्या से बिछड़ना बुलबुल के लिए यातना से कम नहीं होता। सत्या के जाने के बाद एक रात इंद्रनील नशे की हालत में बुलबुल को पीटकर अधमरा कर देता है।
उसके पैरों को बुरी तरह ज़ख़्मी कर देता है। इसके बाद इंद्रनील घर छोड़कर चला जाता है। मंदबुद्धि महेंद्र ज़ख़्मी बुलबुल का यौन उत्पीड़न करता है। गांव का ही एक डॉक्टर सुदीप बुलबुल का इलाज करता है। कहानी आगे बढ़ती है, इंद्रनील के जाने के बाद बड़ी बहू होने के नाते बुलबुल घर की मुखिया बन जाती है। महेंद्र की संदिग्ध हालात में मौत हो चुकी है। बिनोदिनी मानती है, उसे चुड़ैल ने मारा है।
सत्या लंदन से लौटता है। बुलबुल ख़ुश होती है, मगर उसके अंदर कुछ बदल चुका होता है। उसकी बातों और मुस्कान में अब रहस्य की परत रहती है। उधर, गांव में पुरुषों के क़त्ल होने लगते हैं। चर्चा है कि जंगल में उल्टे पैर वाली एक चुड़ैल है, जो मर्दों की जान ले रही है।
लंदन रिटर्न सत्या को यह सब बकवास लगता है और वो स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर सच्चाई जानने के अभियान पर निकल पड़ता है। इस बीच डॉक्टर सुदीप के साथ बुलबुल को घुलते-मिलते देख सत्या को पहले जलन होती है, फिर ज़मींदारी अहंकार जागता है और वो बुलबुल को उसके मायके भेजने का फ़ैसला करता है। सत्या की जांच के दौरान ऐसे घटनाक्रम होते हैं कि कहानी फिर मोड़ लेती है और कई राज़ खुलते हैं। चुड़ैल के उल्टे पैरों का भी।
सुपर नेचुरल थ्रिलर कहकर बनायी गयी बुलबुल एक धीमी रफ़्तार फ़िल्म है। फ़िल्म के बड़े हिस्से में ऐसे दृश्य कम हैं, जो हॉरर या सिहरन पैदा करे। अंत के बीस मिनट में कहानी गति पकड़ती है और कुछ प्रभावशाली दृश्य सामने आते हैं। फ़िल्म लिखाई के स्तर पर कमज़ोर लगती है।
शुरुआत में स्क्रीनप्ले सुस्त लगता है। हां, कुछ जगह संवाद अपना असर छोड़ते हैं। ख़ासकर, वो दृश्य, जब बिनोदिनी बुलबुल पर हुए ज़ुल्म के बाद उसे समझाते हुए अपनी व्यथा को हवेलियों और ज़मींदारों पर तानों के ज़रिए ज़ाहिर करती है।
फ़िल्म का निर्देशन अन्विता दत्त ने किया है, जिन्होंने फ़िल्म को लिखा भी है। निर्देशक के रूप में अन्विता ने अच्छा काम किया है। उन्होंने बुलबुल में पहली बार निर्देशक की ज़िम्मेदारी संभाली है। इससे पहले उन्होंने कई सफल गाने लिखे हैं। बुलबुल के किरदार की परतों को उभारने में तृप्ति डिमरी कामयाब रहीं।
सत्या के किरदार में अविनाश तिवारी, महेंद्र और इंद्रनील के दोहरे किरदार में राहुल बोस प्रभावित करते हैं। बिनोदिनी के किरदार में पाउली दाम और डॉक्टर सुदीप के रोल में परमब्रत चटर्जी असर छोड़ते हैं। अनुष्का शर्मा की बुलबुल महिला सशक्तिकरण को शिद्दत से दिखाती है, मगर हॉरर फ़िल्म का थ्रिल पैदा करने में विफल रहती है। इस बात को ऐसे भी कह सकते हैं कि 'बुलबुल' की चुड़ैल से अधिक डरावने इसके पुरुष किरदार हैं, जो सीधे पैर वाली 'लक्ष्मी' को उल्टे पैर वाली 'चुड़ैल' बनने के लिए मजबूर कर देते हैं।